Vegetarianism saves the environment – पर्यावरण को सुरक्षित करता है शाकाहार

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पर्यावरण को सुरक्षित करता है शाकाहा

मांसाहार भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की एक बड़ी – जनसंख्या के आहार का अंग है। भारतीय संस्कृति में जहाँ हिंसा, क्रूरता एवं अमानवीयता से जुड़े इसके पहलुओं को देखते हुए इसे घृणित ही नहीं, त्याज्य माना गया है, वहीं मांसप्रेमी लोगों द्वारा इसके पक्ष में पौष्टिकता एवं सांस्कृतिक विरासत के रूप में तमाम दलीलें दी जाती रही हैं। विज्ञान – प्रारंभिक दौर में इसके पक्ष में तर्क देता रहा, लेकिन अब समय के साथ इसके स्वर बदलने लगे हैं। विशेषकर स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से मांसाहार के चलन को रोकने व शाकाहार को अपनाने की बात की जा रही है।

शोध के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की दृष्टि से शाकाहार अधिक बेहतर विकल्प है। एक शाकाहारी जहाँ एक एकड़ से भी कम भूमि में निर्वाह कर सकता है, तो वहीं एक मांसाहारी के लिए डेढ़ एकड़ से अधिक भूमि की आवश्यकता होती है। विकसित देशों में मांस उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर पर्यावरण का अतिक्रमण हुआ है। मात्र अमेरिका में 1 किलो गेहूँ उत्पादन के लिए 50 गैलन जल की आवश्यकता रहती है; जबकि – इतने ही मांस के लिए 10,000 गैलन पानी की खपत होती है। स्पष्ट होता है कि जितना हम शाकाहार को अपनाएँगे • उतना ही पर्यावरण पर दबाव कम पड़ेगा और वह मानव की – आवश्यकता को पूरा करने के लिए उपलब्ध होगा। एक आकलन के अनुसार यदि अमेरिका के केवल 10 प्रतिशत व्यक्ति भी मांसाहार बंद कर दें, तो पूरे विश्व की भोजन की आवश्यकता पूरा हो सकती है।

एक अनुमान के अनुसार विश्व में एक एकड़ भूमि में – 8,000 किलो मटर, 24,000 किलो गाजर और 32,000 – किलो टमाटर उत्पन्न किए जा सकते हैं, वहीं उतनी ही भूमि hat 4 मात्र 200 किलो मांस तैयार होता है। ज्ञातव्य हो कि आधुनिक पशुपालन तकनीक में उन्हें सीधे अनाज, तिलहन – एवं अन्य पशुओं का मांस ढूंस-ठूसकर खिलाया जाता है, जिससे कि वे जल्द-से-जल्द अधिक-से-अधिक मांसल बन सके। इस क्रम में औसतन दो-तिहाई अन्न एवं सोयाबीन पशुओं को खिलाया जाता है। इस तरह स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन से भोजन तैयार करने में कई गुना अधिक भूमि एवं प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग होता है, जिनका उपयोग कर कितने लोगों का पोषण हो सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार मांस की खपत में मात्र 10 प्रतिशत कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18,000 बच्चों एवं 6,000 वयस्कों का जीवन बचा सकती है। एक किलो मांस तैयार करने में 7 किलो अन्न या सोयाबीन की खपत होती है। अन्न को मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट तथा 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। 1 किलो आलू उत्पन्न करने में जहाँ मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने मांस को तैयार करने में 10 हजार लीटर पानी की खपत होती है।

इस प्रक्रिया में पशुओं के पालन, चरागाहों के निर्माण के लिए जिस तरह से वनों को नष्ट किया जा रहा है, उससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है। प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ के परिणाम मौसम परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने दिख रहे हैं। मांसाहार के साथ इसके तार जुड़े देखे जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की सन् 2019 की क्लाइमेंट चेंज रिपोर्ट के अनुसार, मौसम परिवर्तन से निपटने के लिए वनस्पति आधारित आहार को प्रोत्साहन देना होगा व मांसाहारी आहार को कम करना होगा। लगभग 100 विशेषज्ञों ने इस रिपोर्ट को तैयार किया, जिनमें आधे विकासशील देशों से थे।

रिपोर्ट की सह-अध्यक्षता कर रहे पारिस्थितिकी विशेषज्ञ हैंस ओटो पोर्टनर ने कहा कि हम यह नहीं कहते कि लोग क्या खाएँ या क्या न खाएँ, लेकिन मौसम एवं मानवीय स्वास्थ्य दोनों दृष्टि से यह उचित होगा यदि लोग मांसाहार को कम करते हैं और बेहतर होगा कि नीतिनिर्धारक लोग ऐसी नीतियों को लागू करने की सोचें। रिपोर्ट ने यह भी कहा कि जंगलों को बचाने की जरूरत है, जो हवा से कार्बन को सोखते हैं। जानवरों के चारे के लिए जंगल की सफाई को नियंत्रित करने की आवश्यकता है।

रिपोर्ट के अनुसार, अमेजन के जंगलों का निर्बाध रूप में किया गया सफाया इसके बड़े हिस्से को रेगिस्तान में बदल सकता है। ब्राजील के साओ पाओलो विश्वविद्यालय के मौसम विज्ञानी कार्लोस नोब्रे के अनुसार, यह अगले 30 से 50 वर्षों में 50 बिलियन टन कार्बन उत्सर्जित करेगा, जो बहुत चिंताजनक है। पोर्टनर के अनुसार, दुर्भाग्य से कुछ से देश जंगलों के सफाए को रोकने की बात को नहीं समझ पा • रहे और हम सरकारों को इसे रोकने के लिए आदेश नहीं दे सकते, लेकिन जनमत को इसके पक्ष में तैयार किया जा सकता है।

सन् 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 37 बिलियन टन के रिकॉर्ड को पार कर गया है, जिसे तीव्रता से नीचे लाने की आवश्यकता – है, जिससे कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिगरी तक कम किया जा सके, इसके लिए तात्कालिक एवं कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। रिपोर्ट के अनुसार आहार की शैली को बदलने मात्र से सन् 2050 तक लाखों वर्गकिमी भूमि दबाव से मुक्त हो सकती हैं , जिससे कि वैश्विक कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन रुक सके। सार रूप में , मौसम में अपने अनुकूल परिवर्तन के लिए आहार की शैली को बदलने की दिशा में बड़े कदम उठाने होंगे।

बीसवीं सदी के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने इस संबंध को गहराई से समझा था, जिसके आधार पर उनका कहना था कि पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने में कोई भी चीज मनुष्य को उतना लाभ नहीं पहुँचाएगी, जितना कि शाकाहार का विकास । वस्तुतः शाकाहार मनुष्य की प्रकृति से जुड़ी एक अत्यंत स्वाभाविक जीवनशैली है, जो सदा से ही मनुष्य के मूल अस्तित्व से जुड़ी रही है। पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व करोड़ों वर्ष पुराना माना जाता है। मूलतः वह यहाँ कंद, मूल, फल, फूल, पत्ते व पौधों को खाकर निर्वाह करता रहा है। जीवाश्मविज्ञानी डॉ. एलन वाकर ने अपने शोध के आधार पर शाकाहार की प्राचीनता को प्रमाणित किया है। उनका निष्कर्ष था कि मनुष्य का मूल आहार शाकाहार व फलाहार था ।

इसके अतिरिक्त शाकाहार एक ऐसी जीवनशैली है जो सीधे सहअस्तित्व, अहिंसा, करुणा एवं मानवता जैसे उदात्त जीवनमूल्यों पर आधारित है। भारतीय संस्कृति सदा से ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के सूत्र में इस दर्शन की वकालत करती आई है। प्रकृति की गोद में , इसको संरक्षित करते हुए, इसके अनुकूल जीवनशैली को अपनाते हुए शाकाहार हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। आधुनिक शोध निष्कर्ष भी स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से इसे श्रेष्ठ विकल्प मान रहे हैं। हम जितना जल्द इन निष्कर्षों को समझ सकें व धारण कर सकें, हमारे लिए वह उतना ही उचित होगा।

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