कपड़े के निर्माण के लिए पादपों ( पौधों ) से रेशे ( फाइबर) , ऊन और रेशम के रेशे जतुओं से प्राप्त होते हैं । जंतुओं से प्राप्त किए जाने वाले रेशों को जातव रेशे कहते हैं । ऊन के रेशे ( फाइवर ) भेड़ अथवा याक के बालों से प्राप्त किए जाते हैं । रेशम के फ़ाइबर रेशम कीट के कोकून ( कोश ) से प्राप्त होते हैं ।
क्या आप जानते हैं कि भेड़ के शरीर के किस भाग से फ्राइबर मिलते हैं ?
क्या आप जानते हैं कि इन रेशों को ऊन में कैसे परिवर्तित किया जाता है , जिन्हें हम स्वेटर बुनने के लिए बाज़ार से खरीदते हैं ?
क्या आपको जानकारी है कि रेशम के फ़ाइबर से रेशम कैसे बनाया जाता है जिनसे साड़ियाँ बुनी जाती हैं ?
जातव रेशे ऊन और रेशम
ऊन
भेड़ , बकरी , याक और कुछ अन्य जंतुओं से ‘ ऊन ‘ प्राप्त की जाती है ऊन प्रदान करने वाले इन जंतुओं के शरीर बालों से ढके होते हैं । क्या आप जानते हैं कि इन जंतुओं के आवरण पर बालों की मोटी परत क्यों होती है ? बालों के बीच अधिक मात्रा में वायु आसानी से भर जाती है । वायु ऊष्मा की कुचालक है । अतः बाल इन जंतुओं को गर्म रखते हैं । ऊन इन रोयेदार रेशो से प्राप्त की जाती है ।
हमारी ही तरह भेड की रोयेंदार त्वचा पर दो प्रकार के रेशे होते हैं-
( I ) दाढ़ी के रूखे बाल और
( II ) त्वचा के निकट अवस्थित तंतुरूपी मुलायम बाल प्रदान करते हैं । तंतुरूपी बाल ऊग ( कर्तित ऊन ) बनाने के लिए रेशे प्रदान करते हैं। भेड़ों की कुछ नस्लों में केवल तंतुरूपी मुलायम बाल ही होते हैं । इनके जनकों का विशेष रूप से ऐसी भेड़ों को जन्म देने के लिए चयन किया जाता है , जिनके शरीर पर सिर्फ़ मुलायम बाल हो । तंतुरूपी मुलायम बालों जैसे विशेष गुणयुक्त भेड़ें उत्पन्न करने के लिए जनकों के चयन की यह प्रक्रिया वरणात्मक प्रजनन ‘ कहलाती है ।
ऊन प्रदान करने वाले जंतु
ऊन प्रदान करने वाले जंतु
हमारे देश के विभिन्न भागों में भेड़ों की अनेक नस्ले पाई जाती हैं । यद्यपि , भेड़ों की ऊन ही ऊन का एकमात्र स्रोत नहीं है , फिर भी बाजार में सामान्य रूप से उपलब्ध ऊन पेड़ की ऊन ही होती है । याक की ऊन तिब्बत और लद्दाख में प्रचलित है ।
बकरी के बालों से भी ऊन प्राप्त की जाती है अंगोरा ऊन को अंगोरा नस्ल की बकरियों से प्राप्त किया जाता है जो जम्मू एवं कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं । कश्मीरी बकरी को त्वचा के निकट मुलायम बाल ( फ़र ) होते हैं इनसे बेहतरीन शॉल बनाई जाती हैं जिन्हें पश्मीना शाले कहते हैं ।
ऊँट के शरीर के बालों का उपयोग भी ऊन के रूप में किया जाता है ।
दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले लामा और ऐल्पेका से भी ऊन प्राप्त होती है ।
बकरी के बालों से भी ऊन प्राप्त की जाती है अंगोरा ऊन को अंगोरा नस्ल की बकरियों से प्राप्त किया जाता है जो जम्मू एवं कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं । कश्मीरी बकरी को त्वचा के निकट मुलायम बाल ( फ़र ) होते हैं इनसे बेहतरीन शॉल बनाई जाती हैं जिन्हें पश्मीना शाले कहते हैं ।
ऊँट के शरीर के बालों का उपयोग भी ऊन के रूप में किया जाता है ।
दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले लामा और ऐल्पेका से भी ऊन प्राप्त होती है ।
रेशों से ऊन तक
रेशों से ऊन तक
ऊन प्राप्त करने के लिए भेड़ों को पाला जाता है उनके बालों को काटकर और फिर उन्हें संसाधित करके ऊन बनाई जाती है।
भेड़ पालन और प्रजनन यदि आप जम्मू और कश्मीर हिमाचल उत्तराखंड , अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के पहाड़ी क्षेत्रों अथवा हरियाणा पंजाब , राजस्थान और गुजरात के मैदानों की यात्रा करें , तो आप गड़रियों को भेड़ों के झुंडों को चराने के लिए ले जाते हुए देख सकते हैं । भेड़ शाकाहारी होती है और वह घास और पत्तियाँ पसंद करती है भेड़ पालक ( पालने वाला ) उन्हें हरे चारे के अतिरिक्त दालें , मक्का , ज्वार खली ( बीज में से तेल निकाल लेने के बाद बचा पदार्थ ) और खनिज भी खिलाते हैं । सर्दियों में भेड़ों को घरों के अंदर रखा जाता है और उन्हें पत्तियाँ अनाज और सूखा चारा खिलाया जाता है ।
हमारे देश के अनेक भागों में भेड़ों को ऊन के लिए पाला जाता है । हमारे देश में हिमालय क्षेत्र में भी ऊन उत्पादन के लिए भेड़ की विशेष प्रजातियों को पाला जाता है । उनसे प्राप्त होने वाली ऊम की गुणवत्ता और गठन सर्वश्रेष्ठ होता है ।
भेड़ की कुछ नस्लों के शरीर पर वालों की घनी परत होती है , जिससे बड़ी मात्रा में अच्छी गुणवत्ता की ऊन प्राप्त होती है । जैसा कि पहले बताया गया है , इन भेडा को ‘ चरणात्मक प्रजनन द्वारा उत्पन्न किया जाता है जिनमें से एक जनक किसी अच्छी नस्ल की भेड़ होती है ।
जब पाली गई भेड़ के शरीर पर बालों की बनी वृद्धि हो जाती है तो ऊन प्राप्त करने के लिए उसके बालों को काट लिया जाता है ।
रेशों को ऊन में संसाधित करना
स्वेटर बुनन अथवा शाल बनाने के लिए उपयोग को जाने वाली ऊन एक लंबी प्रक्रिया द्वारा प्राप्त उत्पाद होती है ,
जिसमें निम्नलिखित चरण सम्मिलित हैं :
भेड़ पालन और प्रजनन यदि आप जम्मू और कश्मीर हिमाचल उत्तराखंड , अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के पहाड़ी क्षेत्रों अथवा हरियाणा पंजाब , राजस्थान और गुजरात के मैदानों की यात्रा करें , तो आप गड़रियों को भेड़ों के झुंडों को चराने के लिए ले जाते हुए देख सकते हैं । भेड़ शाकाहारी होती है और वह घास और पत्तियाँ पसंद करती है भेड़ पालक ( पालने वाला ) उन्हें हरे चारे के अतिरिक्त दालें , मक्का , ज्वार खली ( बीज में से तेल निकाल लेने के बाद बचा पदार्थ ) और खनिज भी खिलाते हैं । सर्दियों में भेड़ों को घरों के अंदर रखा जाता है और उन्हें पत्तियाँ अनाज और सूखा चारा खिलाया जाता है ।
हमारे देश के अनेक भागों में भेड़ों को ऊन के लिए पाला जाता है । हमारे देश में हिमालय क्षेत्र में भी ऊन उत्पादन के लिए भेड़ की विशेष प्रजातियों को पाला जाता है । उनसे प्राप्त होने वाली ऊम की गुणवत्ता और गठन सर्वश्रेष्ठ होता है ।
भेड़ की कुछ नस्लों के शरीर पर वालों की घनी परत होती है , जिससे बड़ी मात्रा में अच्छी गुणवत्ता की ऊन प्राप्त होती है । जैसा कि पहले बताया गया है , इन भेडा को ‘ चरणात्मक प्रजनन द्वारा उत्पन्न किया जाता है जिनमें से एक जनक किसी अच्छी नस्ल की भेड़ होती है ।
जब पाली गई भेड़ के शरीर पर बालों की बनी वृद्धि हो जाती है तो ऊन प्राप्त करने के लिए उसके बालों को काट लिया जाता है ।
रेशों को ऊन में संसाधित करना
स्वेटर बुनन अथवा शाल बनाने के लिए उपयोग को जाने वाली ऊन एक लंबी प्रक्रिया द्वारा प्राप्त उत्पाद होती है ,
जिसमें निम्नलिखित चरण सम्मिलित हैं :
चरण – 1
भेड़ के बालों को त्वचा की पतली परत के साथ शरीर से उतार लिया जाता है यह प्रक्रिया ऊन की कटाई कहलाती है । भेड के बाल उतारने के लिए उसी प्रकार की मशीन का उपयोग किया जाता है जैसी नाई द्वारा बाल काटने के लिए प्रयुक्त की जाती है । सामान्यतः बालों को गर्मी के मौसम में काटा जाता है , ताकि भेड़ बालों के सुरक्षात्मक आवरण के न रहने पर भी जीवित रह सके । बाल ऊनी रेशे प्रदान करते हैं इन्हीं ऊनी रेशों को संसाधित करके ऊन का धागा बनाया जाता है ऊन उतारने के दौरान भेड़ को कोई विशेष कष्ट नहीं होता है जैसे कि आपको बाल कटाने अथवा आपके पिताजी को दाढ़ी बनवाने में नहीं होता । क्या आप जानते हैं . ऐसा क्यों होता है ? त्वचा की सबसे ऊपर वाली परत अधिकांशतः मृत कोशिकाओं से बनी होती है । साथ ही , भेड़ के बाल फिर से उग आते हैं जैसे आपके उग आते हैं ।
चरण – 2
त्वचा सहित उतारे गए बालों को टकियों में डालकर अच्छी तरह से धोया जाता है , जिससे उनकी रेशों को चिकनाई , धूल और गर्त निकल जाए । यह प्रक्रम अभिमार्जन कहलाता है । आजकल , अभिमार्जन मशीनों द्वारा किया जाता है ।
ऊन में परिवर्तित करने के प्रक्रम को निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है :

ऊन की कटाई
↓
अभिमार्जन
↓
छँटाई
↓
बर की छँटाई
↓
रंगाई
↓
रीलिंग
↓
अभिमार्जन
↓
छँटाई
↓
बर की छँटाई
↓
रंगाई
↓
रीलिंग
“व्यावसायिक संकट “
‘ऊन उद्योग हमारे देश में अनेक व्यक्तियों के लिए जीविकोपार्जन का एक महत्वपूर्ण साधन है । लेकिन भरा है क्योंकि छँटाई करने वालों का कार्य कभी – कभी वे एन्क्स नामक जीवाणु द्वारा संक्रमित हो जाते हैं , जो एक घातक रक्त रोग का कारक है , जिसे उद्योग में कारीगरों द्वारा सोर्टर्स रोग कहते हैं किसी ऐसे जोखिमों को झेलना व्यावसायिक संकट कहलाता है ।’
चरण -3
अभिमार्जन के बाद छँटाई की जाती है । रोमिल अथवा रोयेंदार बालों को कारखानों में भेज दिया जाता है , जहाँ विभिन्न गठन वाले वालों को छाँटा या पृथक किया जाता है।
चरण – 4
अगले चरण में बालों को सुखाया जाता है परंतु इससे पहले बालों में से छोटे – छोटे कोमल व फूले हुए रेशो को छाँट लिया जाता है , जो वर कहलाते हैं ये वही बर होते हैं , जो कभी – कभी आपके स्वेटर पर एकत्रित हो जाते हैं । इसके पश्चात् रेशों का पुनः अभिमार्जन करके उन्हें सुखा लिया जाता है । इस -प्रकार प्राप्त उत्पाद ही धागों के रूप में काते जाने के लिए उपयुक्त ऊन होती है ।
चरण -5
रेशों की विभिन्न रंगों में रंगाई की जाती है क्योंकि पेड़ अथवा बकरी की सामान्य ऊन काली , भूरी अथवा सफेद होती है ।
चरण – 6
अंतिम चरण को रीलिंग कहते हैं । अब रेशों को सीधा करके सुलझाया जाता है और फिर लपेटकर उनसे धागा बनाया जाता है । लंबे रेशों को कातकर स्वेटरों की ऊन के रूप में और अपेक्षाकृत छोटे रेशों को कात कर ऊनी वस्त्र बुनने में उपयोग किया जाता है ।
रेशम
रेशम

रेशम ( सिल्क ) के रेशे भी ‘ जातव रेशे ‘ होते हैं । रेशम के कीट रेशम के फ़ाइबरों को बनाते हैं । रेशम प्राप्त करने के लिए रेशम के कोटों को पालना रेशम कीट पालन ( सेरीकल्चर ) कहलाता है ।
“भारत में रेशम उत्पादन से संबद्ध विभिन्न प्रकार के उद्योगों में महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । रेशम कीट के पालन कोकूनों में से रेशम को निकालन और कच्चे रेशम से वस्त्र निर्माण आदि कार्य अधिकतया महिलाओं द्वारा ही किए जाते हैं । अपने उद्यम द्वारा वे राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में योगदान देती हैं । रेशम उत्पादन में चीन विश्व में पहले स्थान पर है । भारत भी प्रमुख रेशम उत्पादक देशों में गिना जाता है ।”
चलिए जानते हैं रेशम के कीट के जीवनचक्र के बारे में :
रेशम कीट का जीवनचक्र
मादा रेशम कीट अंडे देती है जिनसे लार्वा निकलते हैं जो कैटरपिलर / इल्ली या रेशम कीट कहलाते हैं । ये आकार में वृद्धि करते हैं और जब कैटरपिलर अपने जीवनचक्र की अगली अवस्था में प्रवेश करने के लिए तैयार होता है , तो यह प्यूपा / कोशित कहलाता है , जो अपने इर्द – गिर्द एक बुन लेता है । यह जाल उसे अपने स्थान में बने रहने में सहायता करता है फिर यह अंग्रेजी संख्या आठ ( 8 ) के रूप में अपने सिर को एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले जाता है । सिर की इस गति के समय कैटरपिलर पतले तार के रूप में प्रोटीन से बना एक पदार्थ स्त्रावित करता है जो कठोर होकर ( सूखकर ) रेशम का रेशा बन जाता है । जल्दी ही कैटरपिलर स्वयं को पूरी तरह से रेशम के रेशों से ढक लेता है और प्यूपा बन जाता है । यह आवरण कोकून कहलाता है । कीट का इसके आगे का विकास कोकून के भीतर होता है। रेशम के रेशो का उपयोग रेशम के वस्त्र चुनने के लिए किया जाता है । क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि रेशम का मृदु रेशा ( सूत्र ) स्टील के तार जितना मजबूत होता है।
रेशम का धागा रेशम कीट के कोकून से प्राप्त रेशों से तैयार किया जाता है रेशम कीट अनेक किस्म के होते हैं जो एक – दूसरे से काफी अलग दिखाई देते हैं और उनसे प्राप्त होने वाला रेशम का धागा गठन अर्थात् रुक्षता , चिकनाहट चमक आदि में भिन्न होता है । अतः टसर रेशम , मुगा रेशम , कोसा रेशम तथा अन्य प्रकार के रेशम विभिन्न किस्म के रेशम कीटो द्वारा काते गए कोकूनों से प्राप्त किए जाते हैं । सबसे सामान्य रेशम कीट शहतूत रेशम कीट है । इस कीट के कोकून से प्राप्त होने वाला रेशम फ़ाइबर मृदु चमकदार और लचीला होता है तथा इसे सुंदर रंगों में रंगा जा सकता है ।
रेशम कीट पालन अथवा रेशम कीटों का संवर्धन भारत का बहुत प्राचीन व्यवसाय है । भारत व्यावसायिक स्तर पर बहुत अधिक रेशम का उत्पादन करता है ।
रेशम का धागा रेशम कीट के कोकून से प्राप्त रेशों से तैयार किया जाता है रेशम कीट अनेक किस्म के होते हैं जो एक – दूसरे से काफी अलग दिखाई देते हैं और उनसे प्राप्त होने वाला रेशम का धागा गठन अर्थात् रुक्षता , चिकनाहट चमक आदि में भिन्न होता है । अतः टसर रेशम , मुगा रेशम , कोसा रेशम तथा अन्य प्रकार के रेशम विभिन्न किस्म के रेशम कीटो द्वारा काते गए कोकूनों से प्राप्त किए जाते हैं । सबसे सामान्य रेशम कीट शहतूत रेशम कीट है । इस कीट के कोकून से प्राप्त होने वाला रेशम फ़ाइबर मृदु चमकदार और लचीला होता है तथा इसे सुंदर रंगों में रंगा जा सकता है ।
रेशम कीट पालन अथवा रेशम कीटों का संवर्धन भारत का बहुत प्राचीन व्यवसाय है । भारत व्यावसायिक स्तर पर बहुत अधिक रेशम का उत्पादन करता है ।
कोकून से रेशम तक
रेशम प्राप्त करने के लिए रेशम कीटों को पाला जाता है और उनके कोकूनों को एकत्रित करके रेशम के फ्राइवर प्राप्त किए जाते हैं ।
रेशम कीट पालन- कोई मादा रेशम कीट एक बार में सैकड़ों अंडे देती है। अंडों का सावधानी से कपड़े की पट्टियों अथवा कागज़ पर संग्रहित करके रेशम कीट पालकों को बेचा जाता है ये पालक / किसान अंडों को स्वास्थ्यकर स्थितियों , उचित ताप एवं आर्द्रता की अनुकूल स्थितियों में रखते हैं । अडों को उपयुक्त ताप तक गर्म रखा जाता है , जिससे अंडों में से लार्वा निकल आए । यह तब किया जाता है जब शहतूत के वृक्षों पर नई पत्तियों आती । लार्वा , जो कैटरपिलर अथवा रेशम कीट कहलाते हैं दिन – रात खाते रहते हैं और आमाप ( साइज़ ) में काफ़ी बड़े हो जाते हैं । लार्वा को शहतूत की ताजी कटी पत्तियों के साथ बाँस की स्वच्छ ट्रे में रखा जाता है 25 से 30 दिनों के बाद कैटरपिलर खाना बंद कर देते हैं और कोकून बनाने के लिए वे बॉस के बने छोटे – छोटे कक्षों में चले जाते हैं। ( इसके लिए टू में छोटी रैक या टहनियाँ दी जाती हैं , जिनसे कोकून जुड़ जाते हैं । ) कैटरपिलर अथवा रेशम कीट कोकून बनाते हैं . जिसके भीतर प्यूपा विकसित होता है।
रेशम कीट पालन- कोई मादा रेशम कीट एक बार में सैकड़ों अंडे देती है। अंडों का सावधानी से कपड़े की पट्टियों अथवा कागज़ पर संग्रहित करके रेशम कीट पालकों को बेचा जाता है ये पालक / किसान अंडों को स्वास्थ्यकर स्थितियों , उचित ताप एवं आर्द्रता की अनुकूल स्थितियों में रखते हैं । अडों को उपयुक्त ताप तक गर्म रखा जाता है , जिससे अंडों में से लार्वा निकल आए । यह तब किया जाता है जब शहतूत के वृक्षों पर नई पत्तियों आती । लार्वा , जो कैटरपिलर अथवा रेशम कीट कहलाते हैं दिन – रात खाते रहते हैं और आमाप ( साइज़ ) में काफ़ी बड़े हो जाते हैं । लार्वा को शहतूत की ताजी कटी पत्तियों के साथ बाँस की स्वच्छ ट्रे में रखा जाता है 25 से 30 दिनों के बाद कैटरपिलर खाना बंद कर देते हैं और कोकून बनाने के लिए वे बॉस के बने छोटे – छोटे कक्षों में चले जाते हैं। ( इसके लिए टू में छोटी रैक या टहनियाँ दी जाती हैं , जिनसे कोकून जुड़ जाते हैं । ) कैटरपिलर अथवा रेशम कीट कोकून बनाते हैं . जिसके भीतर प्यूपा विकसित होता है।
रेशम का संसाधन-
रेशम फ़ाइबर प्राप्त करने के लिए कोकूनों की बड़ी ढेरी का उपयोग किया जाता है । वयस्क कीट में विकसित होने से पहले ही कोकूनों को धूप में रखा जाता है अथवा पानी में उबाला जाता है या भाप में रखा जाता है । इस प्रक्रम में रेशम के फ़ाइबर पृथक हो जाते हैं । रेशम के रूप में उपयोग के लिए कोकून में से रेशे निकालने के पश्चात उनसे धार्ग बनाने की प्रक्रिया रेशम की रीलिंग कहलाती है । रीलिंग विशेष मशीनों में की जाती है जो कोकून में से फ़ाइबर या रेशों को निकालती हैं । फिर रेशम क फ़ाइबरों की कताई की जाती है , जिससे रेशम के धागे प्राप्त हो जाते हैं । बुनकरों द्वारा रेशम के इन्हीं धागों से वस्त्र बुने जाते हैं ।
“रेशम की खोज “
‘रेशम की खोज का यथार्थ समय संभवतः अज्ञात है । एक प्राचीन चीनी किंवदंती के अनुसार , सम्राट हुआग – टी न साम्राज्ञी सी – लुंग ची से अपने बगीचे में उगने वाले शहतूत के वृक्षों की पत्तियों के क्षतिग्रस्त होने का कारण पता लगाने के लिए कहा था साम्राज्ञी ने पाया कि सफेद कृमि शहतूत की पत्तियों को खा रहे थे । उन्होंने यह भी देखा कि कृमि अपने इर्द – गिर्द चमकदार कोकून बुन लेते थे । संयोग से एक कोकून उनके चाय के प्याले में गिर गया और कोकून में से नाजुक धागों का गुच्छा पृथक हो गया । रेशम उद्योग चीन में आरंभ हुआ और सैकड़ों वर्षों तक इसे कही पहरेदारा में गुप्त रखा गया । बाद में यात्रियों और व्यापारियों ने रेशम का अन्य देशों में प्रचलित किया । जिस मार्ग से उन्होंने यात्रा की थी , उसे आज भी सिल्क रूट कहते हैं ।’