टमाटर के पौधों में टमाटर ही क्यों फलते हैं , बैंगन क्यों नहीं? Why do tomatoes only bear fruit in tomato plants?

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टमाटर के पौधों में टमाटर ही क्यों फलते हैं , बैंगन क्यों नहीं?

टमाटर की खोज

बिल्ली से बिल्लौटे ही क्यों जन्म लेते हैं? शेर का बच्चा शेर ही क्यों होता है ? फूलों के रंगों का राज क्या है ? पशु – पक्षियों और पेड़ – पौधों में इतनी विभिन्नता क्यों है ? क्या कारण है कि हम अपने माता – पिता के समान हैं , बाहरी रूप – रंग में ही नहीं , गुणों और व्यवहारों में भी । फिर भी हम अपने माता – पिता से कई शारीरिक और चारित्रिक विशेषताओं में बिल्कुल अलग होते हैं । ऐसा क्यों ? अपंग शिशुओं का जन्म क्यों होता है ? जीवों के जन्म और आनुवंशिकता से संबंधित ऐसे प्रश्नों के उत्तर मनुष्य सभ्यता के शुरुआती दिनों से ही ढूंढ़ता रहा है । आज से करीब दो – ढाई हजार वर्ष पहले तक विज्ञान इन प्रश्नों के उत्तर देने में बिल्कुल लाचार था ।

टमाटर की खोज - ग्रिगोर मेंडेल के आनुवंशिकता के नियमों में 1865 में मेंडेल ने मटर के पौधों पर उत्कृष्ट प्रयोगों

इसीलिए जन्म से संबंधित अंधविश्वास , मिथक और दंतकथाएं विश्व के हर समाज में पाई जाती हैं और इन पर बड़ी – बड़ी पोथियां लिखी गई हैं । आज भी ये कहानियां दादियों और नानियों के मुंह से सुनी जा सकती हैं । चाहे क्यों न हम अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का ढिंढोरा पीटें , हमारे धर्मग्रंथों में भी जन्म से संबंधित ऊटपटांग और ऊलजुलूल कहानियां भरी पड़ी हैं और आज भी हमारे धर्माचार्य अपने प्रवचनों में उन्हें बड़े चाव से सुनाते हैं । ऐसे भी अनेक मिथक और दंतकथाएं मौजूद हैं , जिनके अनुसार जन्म के लिए निषेचन यानी नर और मादा तत्त्वों का मिलन जरूरी नहीं है । ज्ञान की कमी के कारण लोगों को वैज्ञानिक तथ्यों की जगह अजीबोगरीब कल्पनाओं का घूंट पिलाया जाता रहा है । यह स्वाभाविक भी है , क्योंकि जब तक विज्ञान इन प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ नहीं था , लोग वैज्ञानिक तथ्यों की जगह अपनी कल्पनाशक्ति से ही काम चला लिया करते थे । ईसा पूर्व के वर्षों में भी जब विज्ञान बिल्कुल शैशव अवस्था में था , विज्ञानियों की भी विचित्र कल्पनाएं हुआ करती थीं , जिन्हें सुनकर आज एक बच्चा भी हंस देगा ।
प्राचीन रोम के विख्यात विज्ञानी मार्क तेरेसी वारो ( 116-27 ई . पू . ) ने खेती के बारे में अपनी किताब में लिखा है कि मधुमक्खियों का जन्म थोड़ा मधुमक्खियों से और थोड़ा बैलों से होता है । वैलों से उनका जन्म तब होता है , जब वे सड़ने लगते हैं । इसीलिए ग्रीक दार्शनिक आखलास मधुमक्खियों को बैलों की पंख लगी हुई संतान मानते थे और ततैयों को घोड़ों की । गर्भाधान या निषेचन के बारे में भी उनके ख्याल कुछ कम हास्यास्पद नहीं थे । क्रोटोन के आल्कमेयोन ( 400 ई . पू . ) मानते थे कि शुक्राणु मस्तिष्क का अंश होता है , लेकिन अनाक्सागोरस , डेमोक्रीटीस और हिपोक्रिटीस का मानना था कि शुक्राणु की उत्पत्ति शरीर के सभी भागों से होती है ।
लेकिन किस्सों और कहानियों में जो भी हो , इस समय तक खेती और पशुपालन ने आवश्यक उद्योग का रूप ले लिया था । अपने अनुभवों के आधार पर लोग नये प्रकार के बीजों और नस्लों की खोज में गंभीरता से लगे हुए थे ।

प्राचीन खेती

कभी – कभी यह देखकर आश्चर्य होता है कि मानवीय प्रयोगों की जड़ें अतीत में कितनी दूर तक फैली हुई थीं । इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं है कि खेती योग्य अधिकतर पौधों का सुधार  प्राचीनकाल में ही हो चुका था । कुछ वर्ष पहले पुरातत्त्ववेत्ताओं को करीब 2500 वर्ष पुराना एक शिलापट्ट मिला था । इस पर एक जंतु का चित्र खुदा हुआ है , जो अपने विशाल पंखों को फैलाए हुए खजूर के पेड़ों पर मंडरा रहा है और मुखौटा लगाए एक पुजारी इस पेड़ के मादा फूलों के कृत्रिम परागण का अनुष्ठान पूरा करा रहा है । इस प्रकार प्रजनन और आनुवंशिकता से जुड़े सवालों के बारे में सदियों से दो प्रकार की सूचनाएं मिलती आ रही हैं । एक ओर तो मनगढ़ंत किस्से – कहानियां जो हास्यास्पद हैं और दूसरी ओर ऐसे भी तथ्य जमा होते जा रहे थे , जिनका स्रोत कोई सतत् अनुभव और आकस्मिक ज्ञान होता था या मानवीय कोशिशों या गलतियों का नतीजा ।
लेकिन इस तरह से हमेशा काम नहीं चल सकता था । ज्यों – ज्यों समाज विकसित होता गया , त्यों – त्यों खेती और पशुपालन के सामने नई – नई समस्याओं ने जन्म लेना शुरू कर दिया था । इन समस्याओं का समाधान विज्ञान और केवल विज्ञान ही कर सकता था । यह स्थिति 16 वीं सदी में पैदा होती है , जो करीब – करीब 19 वीं सदी के अंत तक बनी रहती है ।
आनुवंशिकता और प्रजनन को समझने के लिए आवश्यक वैज्ञानिक तथ्यों का पता लगाने का काम 17 वीं सदी के उत्तरार्द्ध से शुरू होता है । 1665 ई . में रॉबर्ट हूक ने शीशे से एक खुर्दबीन , ( माइक्रोस्कोप ) बनाया , जिससे वे तरह – तरह की चीजें देखने लग गए । एक बार शराब की बोतल का एक पुराना कार्क उनके हाथ पड़ गया और ये उसे अपने खुर्दबीन से देखने लगे । उन्हें यह देखकर बहुत ताज्जुब हुआ कि नर्म और चिकना लगने वाला कार्क नन्हे कोशों या कोटरों से बना हुआ है । इन कोटरों को उन्होंने कोशिका ( सेल ) का नाम दिया । ऐसी ही संरचना उन्हें अन्य वनस्पतियों में दिखलाई पड़ी , जिसे उन्होंने अपने मित्रों को दिखाया , लेकिन इसे कोई महान खोज नहीं कहा जा सकता था । उन्होंने इस खोज के बारे में सिर्फ इतना लिखा , ” जिस परमाणु के बारे में प्राचीन दार्शनिक सोचा करते थे , वह इतना बड़ा होता है कि इन कोशिकाओं से गुजर नहीं सकता है ; इतनी नन्ही होती हैं ये । ” उस समय वे लिख भी क्या सकते थे ? बात यहीं खत्म हो गई थी ।

रॉबर्ट हूक


उस समय विज्ञान की प्रगति की गति बड़ी धीमी थी और 50-100 साल के अंतराल का कोई अर्थ नहीं था । 18 वीं और 19 वीं सदी में यूरोप , विशेषकर इंग्लैंड के सिर पर नई – नई बातों को जानने का ज्ञान और विज्ञान का भूत सवार हो गया था । पूरे यूरोप में ज्ञान और विज्ञान की एक लहर – सी दौड़ रही थी और शहरों के अलावा छोटे कस्बे भी इसकी चपेट में आ चुके थे । लोगों ने ठान लिया था कि जल – थल , आकाश , पेड़ – पौधे और जीव – जंतु के सारे भेद जानकर ही दम लेंगे । आदमी की जानकारी की सीमा के बाहर कुछ भी नहीं रह पाएगा । नई – नई बातों को जानने का , जान लेने के बाद उन्हें बस में करने का और हासिल करने का , फिर उन्हें अपने काम में लाने का जैसे एक जुनून सवार हो गया था उन पर !
पौधों में लिंग होते हैं या नहीं , उस समय के विज्ञान के सामने यह एक बड़ा सवाल था , हालांकि प्राचीन लोग कृत्रिम परागण करना जानते थे । आज हमें भले ही आश्चर्य लगे , लेकिन 150 वर्ष पहले तक पौधों का संकरण , विज्ञान की अंतिम उपलब्धि माना जाता था । 1694 ई . में जर्मनी के रूडोल्फ याकूब कामेरारियस ने ‘ पौधों के लिंग ‘ नामक लिखी पुस्तक में पौध प्रजनन से संबंधित तब तक के उपलब्ध वैज्ञानिक तथ्यों और अपने अध्ययन को संकलित और सूत्रबद्ध किया था । इस पुस्तक में सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी , बीजों की उत्पत्ति के लिए परागकणों की उपयोगिता । उन्होंने साफ – साफ शब्दों में लिखा था कि पराग के बिना बीज नहीं बन सकते ।
महान वनस्पति विज्ञानी स्वीडन के कैरोल लीनियस ( 1707-1778 ई . ) , जो पेशे से डॉक्टर थे , ने बाइस वर्ष की उम्र में पौधों के लिंग पर एक लेख लिखा था । उनकी महान कृतियां हैं- पौधों के वर्गीकरण पर चौदह खंडों में लिखी गई दो पुस्तकें । पौधों का वर्गीकरण उन्होंने उनके लिंग के आधार पर किया है । उनके पहले के विज्ञानी पौधों के वर्गीकरण का आधार उनके स्वभाव , निवास स्थान , जीवनकाल आदि मानते थे , लेकिन उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है- पौधों की प्रजातियों का द्विपदीय नामकरण । यह वैज्ञानिक नामकरण की पद्धति है , जो आज भी प्रचलित है । उन्होंने पौधों के संकरण पर भी काफी प्रयोग और अध्ययन किया था और कई पौधों का संकर प्राप्त किया था । फलस्वरूप उन्हें लगा था कि विभिन्न प्रजातियों के बीच संकरण के कारण नई प्रजातियां अभी भी जन्म ले रही हैं , लेकिन एक धर्मपरायण व्यक्ति होने के नाते पूर्व धार्मिक मान्यताओं को त्यागना उनके लिए बहुत ही मुश्किल था । 1751 ई . में प्रकाशित ‘ वनस्पति दर्शन ‘ में उन्होंने लिखा है कि प्रजातियां उतनी ही हैं , जितनी सृष्टि के आरंभ में रची गई थीं , लेकिन बाद में वे भी मानने लगे थे कि सभी प्रजातियां एक ही बार नहीं रची गई हैं और उनकी रचना की प्रक्रिया अभी भी चल रही है । जीवन की संध्या में उन्होंने अपने एक दोस्त को लिखा था , ” माना कि ईश्वर ने इकाई की रचना दो के पहले की और दो की रचना चार के पहले । हो सकता है , ईश्वर ने पहले सरल जीवों की रचना की , फिर बाद में नई प्रजातियों को पाने के लिए उन्होंने उसे आपस में मिला दिया होगा । ” स्मरण रहे , लीनियस , चाल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत की स्थापना से बहुत पहले , करीब एक सदी पहले ऐसी बातें कर रहे थे ।
फिर भी वे संकरण की संभावना को अपवाद ही मानते थे , लेकिन उस समय भी कुछ ऐसे लोग मौजूद थे , जो सभी जीवों के बीच रक्त संबंध की बातें करते थे । यह दुर्भाग्य ही है कि उनकी कृतियों का उतना प्रचार – प्रसार नहीं हो पाया , जितना कि लीनियस की कृतियों का । ऐसे लोगों में सबसे प्रमुख हैं- स्वीडिश विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष जोसेफ गोटेलिव केलरायटर । उन्होंने तंबाकू , गेहूं आदि के पौधों पर योजनाबद्ध तरीके से संकरण का प्रयोग किया , जो आधुनिक पौध संकरण के प्रयोगों के काफी निकट थे । उनका नाम पौध संकरण पर सफल प्रयोगों के कारण ही विख्यात नहीं हुआ है , बल्कि प्रथम संकर पीढ़ी में अधिक उत्पादनशीलता यानी संकर प्रभाव की खोज उन्होंने ही की थी । फसलों में संकर प्रभाव का उपयोग आजकल उपज बढ़ाने में किया जाता है , लेकिन केलरायटर के समकालीन विज्ञानी उनकी कृतियों का सही मूल्यांकन नहीं कर पाए । कुछ लोगों ने तो उनके प्रयोगों से प्राप्त परिणामों को भी संदेह की नजर से देखा और अंत में उन्हें बिल्कुल ही भुला दिया गया । इसी कड़ी में दो और विज्ञानियों का नाम आता है । ये हैं- काल फ्रेडरिक गेर्टनर और शालं नाउडीन , जिन्होंने 19 वीं सदी के मध्य में पौधों की कई प्रजातियों पर संकरण का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया था । अपने प्रयोगों के आधार पर उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष , जैसे- युग्मकों की शुद्धता , प्रथम संकर पीढ़ी की एकरूपता , दूसरी संकर पीढ़ी की विविधता , संकरण प्रभाव आदि पेश किया था । इस तरह 19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक आनुवंशिकता के बारे में हमारा ज्ञान यहीं तक सीमित था , यानी ‘ रक्त सम्मिश्रण का सिद्धांत । ” इस सिद्धांत के अनुसार जब एक ही प्रजाति की दो किस्मों में संकरण कराया जाता है , तो उनके रक्त मिलजुल जाते हैं ।
फिर भी 18-19वीं सदी में किए गए इन प्रयोगों ने वैज्ञानिक पौध प्रजनन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी । वैज्ञानिक पौध सुधार का स्वर्ण विहान होने ही वाला था ।

चार्ल्स डार्विन


चार्ल्स डार्विन जीवविज्ञान की दुनिया में एक नया युग लेकर आए । वे पहले व्यक्ति थे , जिन्होंने जीवों में क्रमिक विकास , प्रकृति विज्ञान की प्रगति और प्रजनन के बारे में हमें विस्तार से समझाया । उनके अकाट्य तर्कों और ठोस प्रमाणों ने जीवजगत की अपरिवर्तनीयता और निरंतरता के युगों से चले आ रहे सिद्धांतों को ध्वस्त कर दिया । 1859 में प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तक ‘ प्राकृतिक चयन द्वारा प्रजातियों की उत्पत्ति में उन्होंने जीवों की प्रजातियों में क्रमिक विकास को संचालित और निर्देशित करने वाले कारकों की विस्तार से व्याख्या की है । उन्होंने यह भी बताया कि कैसे जीवों की प्रजातियों में सूक्ष्म और बेमानी – सी लगनेवाली परिवर्तित विशेषताएं जमा होती हैं और बार – बार चयन के फलस्वरूप आगामी पीढ़ियों में हस्तांतरित होती हैं , अगर उन्हें वैसा वातावरण , जिसमें उन विशेषताओं का विकास हुआ , बना रहे । अतः चयन प्रक्रिया द्वारा मनचाहे परिवर्तनों को स्थिर रखा जा सकता है , अनचाहे जीव रूपों को छोड़ा जा सकता है और फसलों और पालतू जंतुओं की नई किस्मों को सृजित किया जा सकता है । डार्विन का महानतम योगदान यह है कि आदमी में जीवों की प्रजातियों में परिवर्तन करने की क्षमता है । उनके विकासवाद के सिद्धांत , जिसे आज डार्विनवाद कहा जाता है , ने जीवविज्ञान की एक नया स्वरूप प्रदान किया था । आगामी दशकों में जीवविज्ञान की प्रगति डार्विनवाद की छाया में ही हुई । डार्विनवाद ने जीवविज्ञान में नये – नये अविष्कारों का रास्ता खोल दिया और दुनिया के विज्ञानियों को नये – नये तथ्यों को एकत्र करने की प्रेरणा दी । जीवविज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं मनुष्य के पूरे चिंतन जगत् में डार्विन एक प्रचंड उथल – पुथल शुरू कर गए हैं । दर्शन चिंतन में , समाजशास्त्रीय चिंतन में और अर्थ – नीतिक चिंतन में भी वे एक आंधी – सी उठा गए हैं । उस आंधी में पुरानी , गलत – सलत धारणाएं सड़े पत्तों की तरह उड़ गई । मनुष्य सत्य को पहचानने का रास्ता देखने लगा- विज्ञान के सत्य को , जीवन के सत्य को पहचानने का रास्ता । उस सत्य को पहचानने का , जिसे पहचानकर मनुष्य और भी बड़ा , बहुत बड़ा हो सकेगा । लेकिन उनके सिद्धांत में कुछ ठोस खामियां थी । उनके विकासवाद के सिद्धांत में प्राकृतिक चयन की बात तो हर किसी की समझ में आती थी । प्रकृति के अंदर हम देखते ही हैं कि सभी प्राणी क्रम परंपरा में अपनी संतानें पैदा करते हैं , लेकिन सभी संतानें जीवित नहीं रहती हैं । उनके बीच जीने के लिए संघर्ष होता है और इस जीवन संघर्ष में वही विजयी होता है , जिसमें कोई विशेषता औरों से बेहतर होती है । इस विशेषता के कारण वह न केवल अपने जीवन की रक्षा करने में सफल होता है , बल्कि इस विशेषता को वह अपने बाल – बच्चों को विरासत में देता है । ऐसा कई पीढ़ियों तक लगातार होने से यह विशेषता और भी स्पष्टतर होती जाती है और अंत में उस वंश को एक नई धारा मिल जाती है । इस तरह एक नई धारा मिल जाती है । इस तरह एक नई शाखा या प्रजाति की सृष्टि होती है । दूसरे शब्दों में , जो सबसे अच्छा और योग्य है , वही जीवित रह पाएगा । अतः ‘ सर्वोत्तम की उत्तरजीविता ( सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट ) की बात तो हर किसी की समझ में आती थी , लेकिन सर्वोत्तम का आगमन ‘ ( अराइवल ऑफ द फिटेस्ट ) कैसे होता है , इस प्रश्न का कोई जवाब डार्विन के पास नहीं था । क्या जवाब देते वे क्या वे यह कहते कि जीवों के शरीर में जो भिन्नता आती है , जो गुण या लक्षण विकसित होते हैं , जिनकी वजह से जीव , जीवन संघर्ष में विजयी होते हैं , वे सब अचानक ही होते हैं , संयोग से ही होते हैं , इनके कारण नहीं जाने जा सकते । डार्विन का सिद्धांत आनुवंशिकता के ‘ रक्तमिश्रण के सिद्धांत पर आधारित था और इस सिद्धांत के आलोक में जीवों के क्रमिक विकास की व्याख्या नहीं की जा सकती थी । अगर आनुवंशिकता तरल द्रव्यों का मिश्रण है , तो डार्विन का सिद्धांत सही नहीं हो सकता था क्योंकि प्रत्येक नया और लाभदायक परिवर्तन अगली पीढ़ियों में धीरे – धीरे गायब होता जाएगा । स्वयं डार्विन भी अपने सिद्धांत इस कमजोरी से अवगत थे । उन्होंने अपने सबसे बड़े समर्थक और अनुवायी थॉमस हक्सले से इस समस्या पर चर्चा की थी और उन्हें लिखा था , ” मुझे अस्पष्ट और मोटे तौर पर लगने लगा है कि दो विशिष्ट और विभिन्न जीव रूपों के बीच प्रजनन और संकरण में शायद किसी प्रकार का मिश्रण होता होगा , पूर्ण संयोजन नहीं । “

ग्रिगोर मेंडेल के आनुवंशिकता के नियमों में 1865 में मेंडेल ने मटर के पौधों पर उत्कृष्ट प्रयोग


इस प्रश्न का उत्तर छुपा था , डार्विन के समकालीन ग्रिगोर मेंडेल के आनुवंशिकता के नियमों में 1865 में मेंडेल ने मटर के पौधों पर उत्कृष्ट प्रयोगों द्वारा आनुवंशिकता के सिद्धांत प्रतिपादित करके आनुवंशिकता की इकाई , वंशाणु या जीन की परिकल्पना की और बताया कि जीवों की चारित्रिक विशेषताएं एक सरल गणितीय अनुपात में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती हैं । दूसरे शब्दों में जीवों में वंशानुगत गुणों का पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाह क्यों और कैसे होता है , यह मेंडेल के सिद्धांतों के आलोक में समझा जा सकता है । मेंडेल के आनुवंशिकता के सिद्धांतों ने डार्विनवाद को एक ठोस आधार प्रदान किया । यह कैसी विडंबना है कि जीवविज्ञान की दो महान और युगप्रवर्त्तक महाविभूतियां समकालीन होते हुए भी एक – दूसरे की कृतियों से पूर्णतः अनजान थीं । काश ! डार्विन ने मेंडेल का शोधनिबंध पढ़ा होता ! इसे जीवविज्ञान की महानतम त्रासदी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है।
मानव जाति की विचारधारा पर मेंडेलवाद ने जितना गहरा प्रभाव डाला है और मानव मस्तिष्क को जितना झकझोरा है , उतना शायद ही किसी और विज्ञान ने किया हो । इसने 20 वीं सदी के उषाकाल में एक नए जीवविज्ञान को जन्म दिया , जिसे आनुवंशिकी ( जेनेटिक्स ) या जीन विज्ञान कहा जाता है । आज जीन मानव सभ्यता और इतिहास की दिशा और दशा बदलने की क्षमता रखता है और 21 वीं सदी की दहलीज पर उसने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है । ‘ जीन ‘ आज मानव कल्याण का मूलमंत्र बन गया है । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि 21 वीं सदी में जीन की तूती बोलेगी और इसी का राज चलेगा । लेकिन मैडेल का दुर्भाग्य ऐसा था कि जीते जी उन्हें किसी ने भी नहीं पहचाना और न ही सराहा , ख्याति तो दूर की बात है । वे 37 वर्षों की गुमनामी के बाद अपनी मृत्यु के 18 वर्षों के बाद प्रकाश में आए और सारी दुनिया पर छा गए । आज भी हम उनके व्यक्तित्व के बारे में बहुत कम जानते हैं । आखिर कौन थे , मेंडेल ? उनका जीवन कैसा था ? कैसे उन्होंने आनुवंशिकता के नियमों की खोज की ? और कौन – कौन से काम किए उन्होंने ? उनका बुढ़ापा कैसा बीता ? आइए , हम मेंडेल को जानने और पहचानने की कोशिश करें ।

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